बार उससे मिलके बिछड़ने में रह गया एक शहरे-बेचराग़ उजड़ने में रह गया। निकला तेरी तलाश में घर से तो क्या कहूँ, मैं अपने आप से ही बिछड़ने में रह गया बसने की जिद अजीब थी सेहरा में ले गयी और मैं तमाम उम्र उजड़ने में रह गया आँधी चली तो उसका संभलना मुहाल था सूखा हुआ दरख्त उखड़ने में रह गया मुझको गिराके कितने ही आगे निकल गए, मैं ज़िंदगी की जंग ही लड़ने में रह गया सादा वरक मिले थे मुझे कुछ जहान में मैं लफ़्ज के नगीने ही जड़ने में रह गया फ़ुर्सत कहाँ मिली कि मुकद्दर सँवारते अपना तो सारा खेल बिगड़ने में रह गया, साज़िश से काम लेता रहा एक अमीरे शहर बस्ती का हर ग़रीब अकड़ने में रह गया दुनिया बड़े फ़रेब से आगे निकल गयी मैं सीधा सादा शख्स बिछड़ने में रह गया तामीर कर न पाया किसी घर के ख़्वाब को नक्शा ही ज़िन्दगी का उजड़ने में रह गया
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ReplyDeleteबार उससे मिलके बिछड़ने में रह गया
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निकला तेरी तलाश में घर से तो क्या कहूँ,
मैं अपने आप से ही बिछड़ने में रह गया
बसने की जिद अजीब थी सेहरा में ले गयी
और मैं तमाम उम्र उजड़ने में रह गया
आँधी चली तो उसका संभलना मुहाल था
सूखा हुआ दरख्त उखड़ने में रह गया
मुझको गिराके कितने ही आगे निकल गए,
मैं ज़िंदगी की जंग ही लड़ने में रह गया
सादा वरक मिले थे मुझे कुछ जहान में
मैं लफ़्ज के नगीने ही जड़ने में रह गया
फ़ुर्सत कहाँ मिली कि मुकद्दर सँवारते
अपना तो सारा खेल बिगड़ने में रह गया,
साज़िश से काम लेता रहा एक अमीरे शहर
बस्ती का हर ग़रीब अकड़ने में रह गया
दुनिया बड़े फ़रेब से आगे निकल गयी
मैं सीधा सादा शख्स बिछड़ने में रह गया
तामीर कर न पाया किसी घर के ख़्वाब को
नक्शा ही ज़िन्दगी का उजड़ने में रह गया
नि:शब्द करती हुई गजल सर्।