ग़ज़ल ; इब्राहीम "अश्क"
दरिया है तेरी आँख के साग़र तो नहीं है .
ये शोख बदन कोई गुलेतर तो नहीं है,
हर लम्हा जिसे देख के मैं झूम रहा हूँ ,
ये कोई मुहब्बत का तसव्वुर तो नहीं है.
सहरा है कभी और कभी खुल्द के जैसा ,
सौ रंग बदलता ये मेरा घर तो नहीं है.
कुछ बोलती रहती है ये चहरे की खमोशी
लिक्खा हुवा इस मैं कोई दफ्तर तो नहीं है.
उड़ता है बुलंदी की तरफ ये जो हवा मैं ,
जांबाज़ परिंदे का कोई पर तो नहीं है .
गलियों मैं मुहब्बत की भटकता है अकेला ,
इंसान के जैसा ये पयम्बर तो नहीं है .
इक राह के पत्थर पे इबारत सी लिखी है ,
लगता है यही मेरा मुक़द्दर तो नहीं है .
जो सरहदे -अफ्लाक से ऊंचा नज़र आया
ये शहर के मुफलिस का कोई सर तो नहीं है.
ए "अश्क " सरापा है मेरा शेर के जैसा,
सब देख के कहते हैं सुखनवर तो नहीं है.
दरिया है तेरी आँख के साग़र तो नहीं है .
ये शोख बदन कोई गुलेतर तो नहीं है,
हर लम्हा जिसे देख के मैं झूम रहा हूँ ,
ये कोई मुहब्बत का तसव्वुर तो नहीं है.
सहरा है कभी और कभी खुल्द के जैसा ,
सौ रंग बदलता ये मेरा घर तो नहीं है.
कुछ बोलती रहती है ये चहरे की खमोशी
लिक्खा हुवा इस मैं कोई दफ्तर तो नहीं है.
उड़ता है बुलंदी की तरफ ये जो हवा मैं ,
जांबाज़ परिंदे का कोई पर तो नहीं है .
गलियों मैं मुहब्बत की भटकता है अकेला ,
इंसान के जैसा ये पयम्बर तो नहीं है .
इक राह के पत्थर पे इबारत सी लिखी है ,
लगता है यही मेरा मुक़द्दर तो नहीं है .
जो सरहदे -अफ्लाक से ऊंचा नज़र आया
ये शहर के मुफलिस का कोई सर तो नहीं है.
ए "अश्क " सरापा है मेरा शेर के जैसा,
सब देख के कहते हैं सुखनवर तो नहीं है.
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