Saturday 12 July 2014

KACHCHA GHAR [ MASHHOOR NAZM ]


2 comments:

  1. इस बेहतरीन नज़्म के लिए आपकी कलम को बार बार सलाम,

    कच्चा घर - एक नज़्म- इब्राहिम 'अश्क'

    पुराना यार जब मिलता है कोई पूछ लेता हूँ,
    वतन में वो जो कच्चा घर था मेरा अब वो कैसा है
    वो सब मिट्टी की दीवारें जरा जो सर से ऊंची थीं
    कहीं आड़ी कहीं तिरछी कि जो बिल्कुल न सीधी थीं,
    थी उन पर एक छत लोहे की बेतरतीब पतरों की
    वो पतरे आँधियाँ चलतीं तो अक्सर उड़ भी जाते थे,
    कभी वो टूट जाते थे कभी वो मुड़ भी जाते थे.

    नया खर्चा निकल आता था बारिश के जमाने में
    कि गहने माँ के बिक जाते थे उस मौसम सुहाने में
    उखड़ जातीं थीं दीवारें बिगड़ जाता था घर सारा
    सिमट जाता था इक कोने में सामाने-सफ़र सारा,
    कड़कती बिजलियां तो माँ के सीने से लिपट जाते
    खुशी से झूम उठते जब कि बादल सारे छंट जाते

    वो घर गर्मी के मौसम में कोई तंदूर बन जाता
    ठिठुर जाते थे सर्दी में कि जाड़ा जब कभी आता
    वो कच्चा घर ही था अपनी जमीं और आसमाँ अपना
    कि जिसकी धूल मिट्टी में बसा था इक जहाँ अपना
    उसे माँ लीपती थी पोतती थी और सजाती थी
    कि कच्चे घर को वो नादान इक जन्नत बनाती थी

    उसी की धूल में इक रोज वो भी हो गयी मिट्टी,
    जनाजा जब उठा तो सब दरो-दीवार रोये थे
    सहन में थी उदासी औटला मायूस लगता था
    संभालेगा हमें अब कौन सब ही ने ये सोचा था
    मिला इक उम्र का बनवास मुझको अपने उस घर से
    जहाँ बचपन गुजारा कट गया रिश्ता उसी दर से।

    वो कच्चा घर अज़ीज़ों ने मेरे अब बेच डाला है
    खुदा जाने वहाँ क्या हो गया क्या होने वाला है,
    पुराना यार जब मिलता है कोई पूछ लेता हूं,
    वतन में वो जो कच्चा घर था मेरा अब वो कैसा है।

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  2. सारे मंज़र गांव घर व बचपन के खुद ब खुद जिन्दा हो उठते हैं। इस नज़्म को पढकर तारीफ़ के लिए हर्फ़ कम पड़ जाते हैं। बेहतरीन नज़्म है सर।

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