जनाब इब्राहीम अश्क साहब लफ्ज़ नहीं इस ग़ज़ल का हर शे'र अपने आप में मुकम्मल ग़ज़ल का लुत्फ़ देने की ताक़त रखता है आपने इस ग़ज़ल में जोदिल की केफ़ियत बयान की है उस के लिए लफ्ज़ नहीं हैं इस ख़याल को पेश करने के लिए लोग नॉविल अफ़साना बहुत सी सिंफे सुखन मे अपनी बात कहने की कोशिश करते हैं मगर बहुत बाकी रह . है मैं ही दरिया मैं ही तूफा मैं ही था हर मोज भी मैं ही खुद को पीगया सदियों से प्यासा मैं ही था
जनाब इब्राहीम अश्क साहब लफ्ज़ नहीं इस ग़ज़ल का हर शे'र अपने आप में मुकम्मल ग़ज़ल का लुत्फ़ देने की ताक़त रखता
ReplyDeleteहै आपने इस ग़ज़ल में जोदिल की केफ़ियत बयान की है उस के लिए लफ्ज़ नहीं हैं इस ख़याल को पेश करने के लिए लोग नॉविल अफ़साना बहुत सी सिंफे सुखन मे अपनी बात कहने की कोशिश करते हैं मगर बहुत बाकी रह . है
मैं ही दरिया मैं ही तूफा मैं ही था हर मोज भी
मैं ही खुद को पीगया सदियों से प्यासा मैं ही था