Tuesday 22 July 2014

SHEESHE KA AADMI HUN... BY IBRAHIM ASHK

2 comments:

  1. शीशे का आदमी हूँ मेरी ज़िन्दगी है क्या,
    पत्थर हैं सब के हाथ में मुझ को कमी है क्या
    अब शहर में वो फूल से चेहरे नहीं रहे
    कैसी लगी है आग ये बस्ती हुई है क्या
    मैं जल रहा हूं और कोई देखता नहीं
    आँखें हैं सब के पास मगर बेबसी है क्या
    तुम दोस्त हो तो मुझसे जरा दुश्मनी करो
    कुछ तल्खियाँ न हों तो भला दोस्ती है क्या
    ऐ गर्दिश-ए-तलाश न मंज़िल न रास्ता,
    मेरा जुनूँ है क्या मिरी आवारगी है क्या
    ख़ुश हो के हर फ़रेब ज़माने का खा लिया
    ये दिल ही जानता है कि दिल पर बनी है क्या
    दो बोल दिल के हैं जो हर इक दिल को छू सकें
    ऐ 'अश्क'वर्ना शेर हैं क्या शाइरी है क्या//////////////////क्या खूब ग़ज़ल है जनाब, माशाअल्लाह, बेहद खूबसूरत। दिली दाद कुबुलें।

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