Saturday 3 January 2015

چراغ دیر و حرم کی طرح

== غزل== ابراہیم 'اشک'
چراغ دیر و حرم کی طرح جلا ہوں میں.
تمام عمر یونہی آگ میں پلا ہوں میں.
یہی سبب ہے کہ شیطان مجھ سے جلتا ہے،
فرشتے کہتے ہیں میرے لئے ،بھلا ہوں میں.
ہے کاینات کوئی درد کی چھپی جس میں،
ذرا سا غور سے دیکھو وہ آبلہ ہوں میں.
مرے سفر کا ہے آغاز عہد آدم سے،
ہر ایک لمحہ صدی کی طرح چلا ہوں میں.
مرا تو کوئی بھی مذہب نہیں زمانے میں،
سمجھنے والے سمجھتے ہیں باولا ہوں میں.
تمام درد کے کھیتوں میں فصل ہے میری،
کڑکتی دھوپ میں پھولا ہوں اور پھلا ہوں میں.
مجھے اکیلا سمجھتے ہیں دیکھنے والے،
ہزاروں غم کا مگر ایک قافلہ ہوں میں.
ازل ابد سے جڑی ہیں کہانیاں میری،
کبھی نہ ختم ہو اک ایسا سلسلہ ہوں میں.
ورق ورق پہ ہر اک لفظ ہو گیا روشن،
غزل کے شعر میں اے 'اشک' جب ڈھلا ہوں میں.

चराग़े-दैरो-हरम की तरह जला हूँ मैं
तमाम उम्र यूँ ही आग में पला हूँ मैं
यही सबब है कि शैतान मुझसे जलता है
फ़रिश्ते कहते हैं मेरे लिए भला हूँ मैं
है कायनात कोई दर्द की छुपी जिस में
ज़रा सा गौर से देखो वो आबला हूँ मैं
मेरे सफ़र का है आग़ाज़ अहदे-आदम से
हर एक लम्हा सदी की तरह चला हूँ मैं
मेरा तो कोई भी मज़हब नहीं ज़माने में
समझने वाले समझते हैं बावला हूँ मैं
तमाम दर्द के खेतों में फ़स्ल है मेरी
कड़कती धूप में फूला हूँ और फला हूँ मैं।
मुझे अकेला समझते हैं देखने वाले
हज़ारों ग़म का मगर एक काफ़िला हूँ मैं
अज़ल अबद से जुड़ी हैं कहानियाँ मेरी
कभी न ख़त्म हो इक ऐसा सिलसिला हूँ मैं
वरक़ वरक़ पे हर इक लफ्ज़ हो गया रौशन
ग़ज़ल के शे'र में ऐ 'अश्क' जब ढला हूँ मैं।

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